रानी लक्ष्मी बाई जिन्हें हम ‘झाँसी की रानी’ के नाम से जानते हैं, जो भारत के पहले स्वतंत्रता संग्राम (1857) के समय की सबसे बहादुर वीरांगना थी। झाँसी की रानी लक्ष्मी बाई एक ऐसी योधा थी जिन्होंने अंगेजो की सेना के छक्के छुड़ा दिए थे और आखिरी दम तक उनसे लड़ती रही। हमारे देश में झांसी की रानी लक्ष्मीबाई के वीरता की कहानियां सुनाई जाती हैं। रानी लक्ष्मी बाई इतनी बहादुर थी कि वो मरने के बाद भी अंग्रेजो के हाथ नहीं आई थी। झांसी की रानी की 29 साल की उम्र में अंग्रेज़ साम्राज्य की सेना से लड़ते हुए रणभूमि में उनकी मौत हुई थी। इस आर्टिकल में हम आपको झाँसी की रानी की कहानी के बारे में बताने जा रहे हैं। जिसमे आप जानेंगे रानी लक्ष्मी बाई के बारे में जानकारी, झाँसी की रानी स्टोरी, झांसी की रानी का इतिहास, झांसी की रानी की मौत कैसे हुई जैसी मुख बातों को।
लक्ष्मी बाई बहादुरी, देशभक्ति और सम्मान का प्रतीक हैं उनका जन्म 19 नवंबर 1828 में वाराणसी में एक मराठी परिवार में हुआ था। झाँसी की रानी लक्ष्मी बाई का असली नाम मणिकर्णिका था लेकिन उन्हें प्यार से मनु भी कहा जाता था। रानी लक्ष्मी बाई के पिता मोरोपंत ताम्बे मराठा बाजीराव की सेवा में थे और उनकी माता भागीरथी एक विद्वान महिला थीं। बता दें कि बहुत ही कम उम्र में लक्ष्मी बाई ने अपनी माता को खो दिया था जिसके बाद उनके पिता ने उन्हें एक अपरंपरागत तरीके से पाला था। पिता ने लक्ष्मी बाई को हाथियों और घोड़ों की सवारी के साथ हथियारों का प्रभावी ढंग से उपयोग करना सिखाया था। झाँसी की रानी लक्ष्मी बाई नाना साहिब और तात्या टोपे के साथ पली बढ़ी थी जिन्होंने भारत की स्वतंत्रता के पहले विद्रोह उनका साथ दिया था।
रानी लक्ष्मीबाई महल और मंदिर के बीच एक छोटे से एस्कॉर्ट के साथ घोड़े पर सवार होकर आती थीं, हालांकि कभी-कभी उन्हें पालकी द्वारा भी लाया जाया जाता था। उनके घोड़ों में सारंगी, पवन और बादल शामिल थे, इतिहासकारों के अनुसार 1858 में किले से भागते समय रानी लक्ष्मीबाई बादल पर सवार थी।
बता दें कि रानी लक्ष्मी बाई का विवाह राजा गंगाधर राव से हुआ जो झाँसी के महाराजा थे। शादी के बाद से मणिकर्णिका को ही लक्ष्मी बाई के नाम से जाना-जाने लगा था। जो बाद में झांसी की रानी कहलाई। साल 1851 में रानी लक्ष्मीबाई के घर बड़ी खुशी आई, क्योंकि उनके घर एक बेटे का जन्म हुआ था लेकिन लक्ष्मी बाई की यह ख़ुशी ज्यादा दिनों तक नहीं रही और चार महीनों बाद उनके बेटे की मृत्यु हो गई। इसके बाद झाँसी के महाराजा ने दामोदर राव को अपने दत्तक पुत्र रूप में अपनाया। दत्तक पुत्र का असली नाम आनंद राव रखा गया।
रानी लक्ष्मी बाई अपने बेटे की मौत से उभरी ही थी कि इसके 2 साल बाद सन 1853 में बीमारी के चलते उनके पति महाराजा गंगाधर राव की भी मृत्यु हो गई। जब गंगाधर राव की मौत हुई तो रानी लक्ष्मी बाई महज 25 वर्ष की थी, लेकिन पति की मौत के बाद भी रानी लक्ष्मी बाई ने हिम्मत नहीं हारी और उन्होंने अपनी सारी जिम्मेदारी अच्छी तरह निभाई।
उस समय के भारत के गवर्नर जनरल लॉर्ड डलहौजी एक बहुत ही शातिर इंसान थे। उन्होंने ब्रिटिश साम्राज्य के विस्तार के लिए झाँसी के इस दुभाग्य का फायदा उठाने की कोशिश की। ब्रिटिश सरकार ने दामोदर राव को महाराजा गंगाधर राव के मरने के बाद कानूनी उत्तराधिकारी के रूप में स्वीकार नहीं किया था क्योंकि वो महाराज गंगाधर राव के सगे बेटे नहीं थे। उनकी योजना झाँसी पर कब्ज़ा करने की थी और वो चाहते थे कि इसका कोई कानूनी वारिस न रहे। इसके बाद रानी ने ब्रिटिश सरकार के खिलाफ मुकदमा दायर किया, लेकिन झांसी की रानी लक्ष्मी बाई का मुकदमा खरीच कर दिया गया और उन्हें कहा गया कि वो किले को खाली कर दें और खुद रानी महल में जाकर रहे इसके लिए उन्हें 60,000 की वार्षिक पेंशन दी जाएगी। लक्ष्मी बाई अंग्रेजो को झाँसी का किला देने के लिए तैयार नहीं हुई और वो अपने इस निर्णय पर अडिग रही।
इसके बाद झांसी की रक्षा को मजबूत बनाने के लिए रानी लक्ष्मी बाई ने विद्रोहियों की एक सेना को इकट्ठा किया, उनकी इस सेना में महिलाएं भी शामिल थीं। एक मजबूत सेना बनाने के लिए झांसी की रानी लक्ष्मी बाई को दोस्त खान, खुदा बख्श, गुलाम गौस खान, काशीबाई, सुंदर-मुंदर, मोती बाई, दीवान रघुनाथ सिंह और दीवान जवाहर सिंह जैसे बहादुर योद्धाओं का साथ मिला। एक मजबूत सेना के रूप में रानी लक्ष्मी बाई ने 14,000 विद्रोहियों को इकट्ठा किया और एक सेना बनाई।
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झाँसी की रानी लक्ष्मी बाई ने विद्रोहियों की एक सेना बनाने के बाद भारत की आजादी का पहला युद्ध 1857 में मेरठ में शुरू किया। इस विद्रोह में भारतीय सैनिकों ने ब्रिटिश नागरिकों को महिलाओं और बच्चों सहित बुरी तरह मार दिया गया था। ब्रिटिश सैनिकों पर इस विद्रोह को जल्द समाप्त करने का दवाब बना और इसके बाद ब्रिटिश सरकार ने झाँसी को रानी लक्ष्मी बाई के अधीन छोड़ दिया।
इसके बाद लक्ष्मी बाई के शासन में पड़ोसी ओरछा और दतिया’ की सेनाओं ने झाँसी पर आक्रमण किया गया था। जिसके बाद झाँसी की रानी लक्ष्मी बाई को इन दोनों राज्य के राजाओं से युद्ध करना पड़ा। इसके बाद रानी लक्ष्मी बाई ने सेनाओं को इकट्ठा किया और आक्रमणकारियों को हराया।
अगस्त 1857-जनवरी 1858 के समय रानी लक्ष्मी बाई के शासन में झांसी में शांति का माहोल था। ब्रिटिश सेना के गैर-आगमन ने उनकी सेना को मजबूत किया और भारतीय सैनिको को ब्रिटिश शासन से अपनी स्वतंत्रता के लिए लड़ने के लिए प्रेरित किया। जब कंपनी बल आया तो उन्होंने रानी लक्ष्मी बाई से आत्मसमर्पण करने की मांग की लेकिन रानी लक्ष्मी बाई ने उन्हें झाँसी सौंपने से इनकार कर दिया और अपने राज्य के बचाव में उतरी।
23 मार्च 1858 को झांसी की लड़ाई शुरू हुई, रानी लक्ष्मी बाई अपने सैनिको के साथ झांसी के राज्य के लिए साहसपूर्वक लड़ाई लड़ी, लेकिन ब्रिटिश सेना ने उसकी सेना पर अधिकार कर लिया और इसके बाद लक्ष्मी बाई अपने बेटे के साथ कालपी भाग गई, जहां उन्होंने तात्या टोपे अन्य विद्रोहियों के साथ मिलकर सेना बनाई।
22 मई 1858 को ब्रिटिश सेनाओं ने कालपी पर हमला किया और भारतीय सैनिकों को फिर से हरा दिया। ब्रिटिश सेनाओं झाँसी की रानी लक्ष्मी बाई और उनके साथियों को ग्वालियर भागने पर मजबूर किया।
16 जून, 1858 को ब्रिटिश सेना ने ग्वालियर पर हमला किया। रानी लक्ष्मी बाई इस हमले के लिए अपने सैनिको और लीडर्स को तैयार नहीं पाई। जब रानी लक्ष्मी बाई ब्रिटिश सेना से लड़ रही थी तो एक दम से उन्हें सीने में ऐसा दर्द हुआ जैसे कि उन्हें किसी सांप ने काट लिया हो। लक्ष्मी बाई एक अंग्रेज सैनिक को देख नहीं पाई थी जिसने उनके सीने में संगीन घोप दी लेकिन इसके बाद भी लक्ष्मी बाई मुड़कर हमला करने वाले सैनिक का मुकाबला किया।
रानी को ज्यादा गहरी चोंट तो नहीं लगी थी, लेकिन उनका काफी रक्त बह गया था। घोड़े पर दोड़ते हुए अचानक उनके सामने एक झरना आ गया और उन्होंने सोचा की अगर वो इस झरने को पार कर लेंगी तो फिर उन्हें कोई नहीं पकड़ पायेगा, लेकिन दौड़ते- दौड़ते अचानक उनका घोड़ा रुक गया और आगे बढ़ने से इनकार करने लगा। क्योंकि ये नया था। तभी रानी लक्ष्मी बाई की कमर पर तेजी से वार हुआ। रानी की कमर में एक रायफल लगी थी जिसकी वजह से वो घायल हो गई और उनकी तलवार हाथ से नीचे गिर गई। लक्ष्मी बाई ने अपने हाथ से कमर से निकलने वाले खून को रोकने की कोशिश की। इसके बाद एक अंग्रेज सैनिक ने रानी के सिर पर तेजी से वार किया, जिसमें उन्हें बहुत ज्यादा चोट लगी और उनका माथा फट गया। रानी लक्ष्मी बाई ने सैनिक पर जवाबी बार किया लेकिन इसके बाद वो घोड़े से नीचे गिर गई तो रानी के एक सैनिक ने अपने घोड़े से उतारकर उन्हें अपने हाथो में ले लिया और पास के मंदिर में ले आया तब तक रानी लक्ष्मी बाई की सांसे चल रही थी। रानी के मंदिर के पुजारियों से कहा की मैं अपने पुत्र दामोदर को आपकी देखरेख में छोड़ रही हूँ।
इसके बाद रानी की साँसे जोर से चलने लगी और उन्होंने अपने सैनिको से कहा कि उनका शरीर अंग्रेजो के हाथ नहीं आना चाहिए। इसके बाद रानी ने अंतिम सांसे ली और ग्वालियर के पास कोटा की सराय में 18 जून 1858 को ब्रितानी सेना से लड़ते हुए झाँसी की रानी लक्ष्मी बाई की मृत्यु हो गई। रानी के मरने के बाद सब कुछ शांत हो गया। इसके बाद वह मौजूद रानी के अंगरक्षको ने लकड़ियाँ इकट्ठा करके उनके पार्थिव शरीर को जला दिया। इसके बाद खुद ब्रितानी जनरल ह्यूरोज़ ने रानी लक्ष्मी बाई की तारीफ में कहा कि रानी लक्ष्मीबाई ने अपनी चालाकी और दृढ़ता के लिए बहुत खास तो थी लेकिन विद्रोही नेताओं में सबसे ज्यादा ताकतवर और भारतीय सैनिको में सबसे खतरनाक भी थी।
रानी के बारे में कई देशभक्ति गीत लिखे गए हैं। रानी लक्ष्मी बाई के बारे में सबसे प्रसिद्ध रचना सुभद्रा कुमारी चौहान द्वारा लिखित हिंदी कविता झांसी की रानी है। जिसमे रानी लक्ष्मीबाई के जीवन का भावनात्मक रूप से वर्णन किया गया, यह अक्सर भारत के स्कूलों में पढ़ायी जाटी है। इससे एक लोकप्रिय पंक्ति इस प्रकार है:
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Very nice ❤❤